Manibhadra Veer Jeevan Charitra

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Manibhadra Veer Jeevan Charitra









इस जम्बूद्वीप के अन्दर दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र है । उसके अन्दर मालव नाम का एक विशाल देश है । जहां पर कभी अकाल नहीं पड़ता है।यहाँ पर हर तरह की वनस्पतियां,औषधि,जडी बूटियाँ पैदा होती है ।मांडवगढ,नागेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ , अवंति पार्श्वनाथ तीर्थ ,और मक्सी पार्श्वनाथ, भोपावर तीर्थ  श्री शान्तिनाथ तीर्थ यह पंचतीर्थ इस देश के श्रृंगार है। जिस देश के अन्दर मयणासुन्दरी सती पैदा हुई , विक्रमराजा जैसे महान सम्राट ने जैन धर्म की प्रभावना की,सर्वधर्मो का यथायोग्य सत्कार किया,दानशालायें,ज्ञानशालायें,धर्मशालायें,खुलवाकर जनता का प्रेम सम्पादन किया और विक्रम सम्वत् का आरम्भ किया वह अद्यापर्यन्त प्रचलित है ।
ऐसे मनोहर और पवित्र देश के अन्दर अवन्ति पार्श्वनाथ के नाम से अवन्ति नाम की नगरी है , अभी वर्तमान काल में इसका नाम उज्जैन कहा जाता है ।

इस उज्जैनी नगरी के अन्दर अनेक जिनालयो,उपाश्रयो,धर्मशाला,पाठशालाओं एवम् विद्यालय है।उसमें भी श्री अवन्ति पार्श्वनाथ मन्दिर मुख्य और ऐतिहासिक है। महाकाल का मन्दिर,अन्य शिवालयों और अन्य विष्णु मन्दिर इत्यादि दर्शनीय है। नगर के बाहर क्षिप्रा नाम की नदी स्वच्छ से बहती हुई अनेक आत्माओ का संचित मल का क्षय कर हुई नजर आती है। नगर के चारो ओर वनस्पति,कुआँ का तालाब करामत वाले दरवाजे और चम्पा,गुलाब,मोगरा, हम चमेली, पुष्प बाग उद्यान इत्यादि संत - पुरुषों की योग साधन के योगाश्रम,ध्यान करने योग्य स्थानों से यह भूमि अलंत है यह अवन्ति - नगरी तरह तरह के व्यापारियों , कोट्याधिपति लक्ष्मीधिपति और सभी वर्ग की जनता से परिपूर्ण थी । 

सभी धर्मावलम्बी जनता आपस में हिल - मिल और सहयोग से अपने अपने धर्म का पालन करते थे , जहां पर राजा भी प्रजावत्सल और न्याय से प्रजा का पालन करता था । ऐसे महान् नगर में माणेकशाह सेठ सपरिवार जैन धर्म तपागच्छ की शाखा का परम्परा से अनुयायी थे । माणेकशाह सेठ की गिनती अवजाधिपति श्रेष्ठियों में गिनी जाती थी उनकी माता चुस्तरीति से जैनवतो का पालन करने वाली और समकीति थी पूजा - प्रतिक्रमण पोषधव्रत दानशील तप भावना इत्यादि धर्म के व्रतो का खुद पालन करती और सारे कुटुम्ब को पालन कराती थी । 
 एक समय लोकागच्छ के आचार्य का उज्जैनी नगरी में व्याख्यान सुनने को गये । लोकागच्छ के आचार्य ने साथ माणेकशाह सेठ भी लोकरीति प्रतिमा पूजन का उत्यापन किया उसमें माणेकशाह सेठ भी शामिल हुए और लोकाशाह के अनुयायी बने , लोकाशाह की पुस्तक लिखने वाला लहिया था , लिखने में बार बार गलतीयों करने से शास्त्र अशुद्ध लिखे जाने लगे उससे ठपका मिला उससे लोकाशाह कोधित हुये और लिंबडी शहर में जाकर मंत्री इत्यादि को उपदेश देने लगे कि प्रतिमा पूजन में महादोष है । हिंसा है । मैंने शास्त्रो में सार ढूंढ लिया है और यह उपदेश  मैं कहता हूँ वह सच्चा है । इस शब्द से लोकाशाह का मत ढुंढिया अर्थात् ढुंढक कहा जाता है । यह मत विक्रम सम्वत् १५६० के आसपास में निकला है । कितनेक लोग इस पंथ में मिले थे ।
जब माणेकशाह सेठ की माता को अपने पुत्र की लोकामत में शामिल होने की बात मालूम हुई , तब उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक मेरा माणेकशाह इस उल्टे पंथ को छोड़कर परम्परा से आया हुआ शुद्ध तपागच्छ की नही स्वीकारे तब तक ंघी विगय का सर्वथा त्याग है । 
जब यह प्रतिज्ञा की बात अपनी पुत्र वधू को मालुम हुई तब अवसर पाकर उसने पतिदेव माणेकशाह से निवेदन किया कि हे स्वामीनाथ ! माताजी छः महीने हो गये हैं । घी नही खाती है । माता जी को इस विषय में बहुत ही बडा भारी दुःख है कि आप जैन आगमों में कहा हुआ,और पालन करता हुआ,प्रतिमा पूजन को छोडकर, प्रतिमा उत्थापन करने वाला तूंपक धर्म को स्वीकारा है । यह अज्ञानता है ,सैकडो मन्दिर ,लाखो प्रतिमाए पुराने से पुरानी मौजूद है । शास्त्रो से दृष्टान्त प्रतिमा पूजन का है । द्रौपदी ने भी प्रतिमा पूजी थी प्रतिमा को देखकर अर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान हुआ समकित पाया । इत्यादि शास्त्रो में अनेकानेक दृष्टान्त और पुरावे मौजूद है।
इसलिए स्वामिन ! इस नये मत को छोडकर माताजी जो कहती है वह मान लीजिये । माणेकशाह कहता है कि अवसर पाकर गुरु महाराज के पास जाकर मन का समाधान करूंगा ।कुछ समय पश्चात् श्री महावीर भगवान की पचपनवी पाट को शोभायमान करते हुए तपागच्छाधिपति आचार्य श्री हेम विमल सूरीजी शिष्य परिवार सहित नगर के बाहर उद्यान में पधारे यह बात सम्वत् १५६२ की हैं उस समय तीन मत निकले थे । कनककलसा , कनकपुरा और कडवामति । 
जब आचार्य हेमविमल सूरीजी अनेक जीवो को बोध देते हुए अज्ञान रुपी अन्धकार को दूर करते हुए उज्जैनी के उधान में समोसरण और काउसग्गध्यान में स्थित हुए , तब यह बात माणेकशाह सेठ की माता को मालुम हुई , तब वह खुश हुई । 
रात का समय होने लगा , अन्धकार से रात्रि आच्छादित हुई , उस जंगल के उधान में हिंसक पशुओं की आवाजे होने लगा समय आचार्यादि मुनिगण काउसग्गध्यान में स्थित होकर आत्मध्यान की धुन लगाये रहते थे । उसी समय माणेकशाह सेठ मशाल लेकर मुनियों के पास उपस्थित हुए डउस समय मुनिगण ध्यान स्थिति में थे।माणेकशाह दाढ़ी और मूछ के पास जलती हुई मशाल लेकर अवज्ञा करते हुए एक एक मुनी को देख रहे थे।

मुनिंगण समता ध्यान में झूल रहे थे,समता के सागर ऐसे मुनियों को देखने से माणेकशाह सेठ को पश्चाताप हुआ,दुख हुआ मैने ऐसे मुनियों की अवज्ञा की ,मस्करी की,यह बहुत बुरा हुआ।मैंने बहुत बड़ी भूल की,पश्चाताप करता हुआ अपने में आकर यह बात अपनी माता को कहने लगा की माताजी! ये मुनिगण कितने समताधारी है । लेशमात्र भी क्रोध नहीं किया और नहीं शाप दिया। 
ये मुनी कितने निरागी,निसंगी हैं। ये महापुरुष खुद तिरतें है और अन्य लोगों को तारते है । हें माताजी ! मैं इन महापुरुषों के पास अपनी भूल क्षमायाचना करके आत्मा को निर्मल बनाऊंगा ऐसी बाते करते हुए माणेकशाह सेठ निद्रा पा गये।
ब्रह्म मुहुर्त में पंचपरमेष्टि नवकार मंत्र का ध्यान करते हुये,हुये निद्रा से जाग्रत हुये । शुद्ध बनकर,शुद्ध वस्त्र धारण करके उतरासन डालकर,नगर जनो को एकत्रित करके ज्ञानोपकरण की भेट लेकर बडे आड़म्बर के साथ गुरुदेव को वंदन करने को गये । भेट गुरु महाराज को रखी , तीन प्रदक्षिणा दी । पाँच अभिगम का पालन किया , बहुत ही हर्ष पूर्वक हृदय से गुरु महाराज को वन्दना करके स्वस्थान में जाकर बैठे । गुरुदेव ने भी जीवो को कल्याण करनेवाली अमृतधारा समान जिनेश्वर देव कथित , वाणी वर्षा का आरम्भ किया ।
हे महानुभावो ! मनुष्य को बुद्धि मिली है उसका सदुपयोग तत्वो की विचारणा और चिन्तन है । हेय - ज्ञेय और उपादेय मे  जड और चेतन का ज्ञान करने से है । चेतन तत्व उपादेय जड तत्व ज्ञेय करके हेय करने का है । हेय का अर्थ त्याग करना ज्ञेय का अर्थ समझने लायक समझना और उपादेय का अर्थ करने लायक ग्रहण करना होता है । 

आत्मतत्व की विचार करने से आत्मा के साथ लगा हुआ जो शरीर है , उसका सदुपयोग संवर यानि व्रत को अंगीकार करने से होता है और अर्थ यानि नौ तरह का परिग्रह धन वगैरह है । यह पात्र में दान देने से सदुपयोग होता है । 

जो भाषा मिली है उससे मनुष्यो को प्रीति उत्पन्न होती है। वैसे शब्द बोलने से सदुपयोग होता है।जो मनुष्यो को यानि जीवत्माओ को परिणाम मे हित करनेवाला हो वैसा ही शब्दोच्चार करना वह सदुपयोग है । 

जिसको आत्मतत्व का ज्ञान हुआ है अनुभव में आत्मज्ञान  आया है,वही सच्चा ज्ञानी है जिसको आत्मानुभव हुआ है ंवह व्यक्ति संवर अर्थात् द्रव्य भाव से नियमो , व्रतों को अंगीकार किये बिना नहीं रहेगा । जब व्रत नियमो को अंगीकार करते तब , जो अर्थ मिला है उससे दान दिये बिना नहीं रहेगा सुपात्रदान - अभयदान - अनुकंपादन कीर्तिदान और उचितदान पाँच दान है। उसमें पहला और दूसरा दान मुक्ति में ले जाने को मुख्य है , तीसरा दान- परम्परा से मुक्ति में ले जाने योग्य  है , चौथा और पांचवा दान इस लोक में कीर्ति और कुटुम्ब प्रेम का अंग है ।

 देवगुरु और धर्म इन तीनों की शरण लेने से ही आत्मतत्व का ज्ञान होता है । अठ्ठारह दोषो से रहित , अरिहंत परमात्मा देव है । वही मेरे इष्टदेव है । पांच महाव्रत को पालन करने वाले , कंचन कामिनी के त्यागी , सत का उपदेश देने वाले .वही मेरे आराध्य गुरु है । दयामय धर्म वही मेरा धर्म हैं , इन तीनो तत्वो को समझो और उनकी ही शरण लेने से आत्मा का उद्धार होता है । साक्षात् अरिहंत देवकी बिन हाजरी में चार निक्षेपयुक्त शास्त्रों में कही हुई उनकी प्रतिमा , आत्मा को आलंबनभूत है । उनकी द्रव्य और भाव से भक्ति करने से आत्मा का विकास होकर तिर जाता है।भगवतिसूत्र,रायमसेणी,जीवाभिगमसूत्र इत्यादि मूल आगम ग्रन्थो में प्रतिमा पूजन का अधिकार है । इस लिए महानुभावो आत्मा का विकास का अचूक साधन जिन प्रतिमा है । अविछिन्न परम्परा से साबित है । शास्त्रो में प्रमाण है द्रव्य से प्रतिमा का आलंबन पाकर विकास आत्मा का ध्यान करता हुआ , भाव से आत्मा के गुणो का आलंबन पा सकता है
ध्याता - ध्यान और आत्मसमाधि ध्येय की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार गुरुदेव से उपदेश सुनकर माणेकशाह सेठ के मन में प्रतिमा पूजन का संशय था , वह मिट गया ।


आचार्य भगवंतादि मुनिगण वहां से विहार करते अन्य पधारे।गुरुदेव के मुख से समक्ति  मूल बारह व्रत लिये। गुरुदेव को आमन्त्रण देकर अपने महल के उद्यान में लाये बड़े  ही उत्साह से स्वागत और सम्मान किया अपनी मूल की क्षमा याचना की और प्रायश्चित किया भात,पानी,वस्त्र,कम्बल ,पायपुच्छण से प्रतिळाभित किये ।

माणेकशाह सेठ तरह तरह के सामानों की पोटली भरकर आगरा गये एवं वहां पर माल को बेचा और नया माल खरीद किया।व्यापार में बहुत सा धन सम्पादन किया जब जाने की तैयारी करते है उतने में मालुम हुआ कि पूज्य आचार्य  देव श्री हेमविमलसूरजी आगरा चार्तुमास को पधारे है यह सुनकर खुशी हुई जो धन की पोटलीे थी वह मुनीम के साथ अपने नगर को भेज दी। माणेकशाह गुरु मुख से उपदेश सुनने को और गुरु की सेवा लाभ लेने को आगरा में ठहर गये धर्मध्यान रोज करने लगे दोनो समय प्रतिक्रमण, समायिक अष्टप्रकारी अरिहंत परमात्मा की पूजा गुरु मुन से व्याख्यान श्रवण, दानशील, तप और भाव का पालन गुरु चरणों में रहकर करने लगे।

व्याख्यान में शाश्वत तीर्थ शत्रुजय का वर्णन गुरु सुना रहे है क्योंकि गुरु महाराज ने ज्ञान बल से जान लिया था कि माणेकशाह एकावतारी जीव है। शत्रुंजय के कंकर कंकर में अनंते जीव मुक्ति में गये है साथ ही अनंतानंत मोक्ष पायेंगे। महाहत्या करने वाले,महापापी भी इस गिरीराज की शरण लय से तिर जावेगे और तिर गये है और तर जाते है।चौदह क्षेत्र के अन्दर ऐसा कोई दूसरा तीथे नहीं है।जो वयक्ति गिरीराज की यात्रा करता है, वह ज्यादा से ज्यादा आठ भवोके अन्दर अवश्य मुक्ति पाता है इस प्रकार ज्यादा समय प्रतिक्रमण,सामायिक पूजा,शाखश्रवण इत्यादि कर्म करते हुए व्यतीत करते हैं।

अब इस तरफ लोकागच्छ का आचार्य जिसको प्रथम बार माणेकशाह ने गुरु के रुप में स्वीकार किया था,फिर पूज्य हेम विमलसूरी जी के सत्य उपदेश से उस मत को और उस गुरु को त्याग दिया।उससे वह क्रोधित हुआ और हेम विमलसूरी जी के शिष्यों का नाश करने के लिये  काला एवं गोरा भैरव की साधना की और काला-गोरा भैरव को आदेश दिया तपागच्छ के आचार्य हेम विमल सूरी और उनके शिष्यों को भ्रमित करके नाश कर दो । काळा गौरा भैरव लोका ( ढुडक ) मत का आचार्य को आज्ञा से स्थडिल बहार भूमि में गये हुये साधु को परेशान व भ्रमित कर रात-दिन जंगल मे घुमा कर मारने लगा।इस प्रकार साधु के शरीर में प्रवेश कर उपद्रव करने लगा और चार्तुमास पूर्ण होते होते दस साधुओं को कालधर्म कर स्वर्गवासी बने । 

उपद्रव कौन करता है और इसे कैसे मिटाया जाया है यह सोचकर गुरुदेव सुरिमन्त्र के ध्यान में बैठे, यान के प्रताप से मूल मन्त्र के अधिष्टायक देव प्रत्यक्ष हुए और कहा कि आप गुजरात की भूमि में प्रवेश करेंगे तब देवतात उपद्रव नष्ट होगा ।यह कहकर देव अंतर्ध्यान हो गये । 

इस तरह माणेकशाह धर्म ध्यान करते हुए और श्री शत्रुजय का महात्मय सुनते हुए आत्मा में भावना हुई कि मैं चउविहारा उपवास के साथ मौन व्रत धारणकर पैदल चलकर अकेले ही गिरीराज की या़़त्रा शुरु करु।जब यह मनोरथ पूज्य आचार्य भगवंत को निवेदन किया तो गुरुदेवश्री ने कहा कि हे भाग्यशाली यह मनोरथ बह ही अच्छा है।मगर यह कार्य बहुत ही कठीन है क्यों न आगरा से शत्रुंजय करीबन दौ सौ कोस से उपर है चौविहारा करके पैदल यात्रा करना बहुत कठीन है । 

माणेकशाह ने कहा कि हे कृपालु गुरुदेव ! आपकी असीम कृपा से सभी अच्छा ही होगा कृपा करके प्रतिज्ञा देकर अनुग्रहित कीजिये । ऐसी प्रार्थना सुनकर प्रसन्नचित्त से माणेकशाह को शत्रुजय जाने की प्रतिज्ञा दी । प्रतिज्ञा लेकर अन्नजल रहित उपवास सहित,पैदल और पैरो में जूतियां भी नहीं और मौन हो कर श्री नवकार महामन्त्र का स्मरण करते हुये आगरा से प्रस्थान किया ।

गुजरात के आरम्भ में पालनपुर के नजदीक में मगरवाडा नाम का गाँव था, उसके  आस-पास में बडी ही विकट अटवी थी । चोर डाकुओं का वर्हां पर अड्डा था । जब माणेक शाह इस अटवी में पहुंचे तब डाकू लोग प्रकट होकर कहने लगे कि बता तेरे पास क्या माल मिलकत है । लेकिन माणेकशाह सेठ नवकार मन्त्र का स्मरण करते हुए रास्ता नाप रहे थे , उन्होंने ये शब्द सुने ही नहीं थे।क्योंकि सेठ तो श्री सिद्धाचल की यात्रा की धुन में और नवकार मन्त्र के स्मरण में विलीन थे।प्रत्युत्तर कुछ भी नहीं मिलने पर डाकूओ ने माणेकशाह के ऊपर शस्त्र चलाया और शरीर के तीन टुकडे कर दिये।वहां पर माणेकशाह सेठ मरकर व्यन्तर के इन्द्र हुए। शुभ ध्यान से मरने के कारण एकावतारी व समकितधारी इन्द्र हुए ,जिसकी सेवा में बावन वीर और चौसठ योगिनी हमेशां रहते हैं।
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देवलोक में यह रीति है कि जब पहला इन्द्र आयुष पूर्ण करके दूसरी गति में जाता है तब उसी जगह,उसी सिंहासन पर दूसरा इन्द्र पैदा होता है । उनको भी माणिभद्र इन्द्र नाम से पुकारा जाता है। इस कारण माणिभद्र देव का
सिंहासन शाश्वत है उस तख्त पर जो उत्पन्न होगा उसका नाम सदा ही माणिभद्र इन्द्र  होता है । 

शुद्ध श्यामवर्ण,तुदिल ( अजमुख )मनोहर प्रियदर्शन,मान सम्मान सहित,हाथ, पग,तालु नख,जीव्हा और होठ रक्तवर्ण के होते है।लाल और चमकीला मुकट मस्तक पर धारण करता है,भांति भांति के रत्नों, आभूषणो से भूषित और वृट वृक्ष की शाखायुक्त षटभुजावाला त्रिशुल,डमरु,मृगदल,अंकुश नाग को धारण किये हुए एरावत हाथी जिसका वाहन है ऐसा माणिभद्र देव व्यंतरेन्द्र हुए । 

अनेक प्रकार के देवताई सुखो का उपयोग करते हुए माणिभद्र देव व्यंतर- लोक में विराजित है । सचमुच गुरु की कृपा और धर्म का फल माणेकशाह सेठ ने पाया और माणेकशाह मरकर माणिभद्र-इन्द्र हुए और एक भव के पश्चात् मनुष्य योनि में आकर,शुद्ध चारित्र धर्म का पालन कर मोक्ष जायेंगे। 

इस तरफ परमपूज्य हेमविमलसूरी जी शिष्य परिवार आगरा से विहार करते हुए पालनपुर नजदीक मगरवाडा गाँव के नजदीक आए,गुजरात में प्रवेश हो गया है । अब देवों का उपद्रव मिट जाना चाहिये यह सोचकर अठाई की तपस्या की जिससे माणिभद्र इन्द्र का सिंहासन हिल उठा,इन्द्र ने अवधि ज्ञान से गुरु को आये देखा और उसी समय गुरु के सन्मुख अपने परिवार सहित प्रत्यक्ष होकर हाजिर हुए और हाथ जोडकर कहने लगे गुरुदेव! क्या आपने मुझे पहचाना ! गुरुदेव कहते है कि आप कोई देव या इन्द्र है। माणिभद्र इन्द्र कहने लगे कि हे पूज्य गुरुदेव ! मै आपका किर्कर माणेक शाह हुँ और आपके पास से शत्रुंजय की यात्रा की प्रतिज्ञा लेकर सिंध्याचल का ध्यान करते निकला और इसी जगह पर आया और डाकुओ ने इस नश्वर देह का नाश किया मगर शुभ ध्यान से मरकर चौसठवी व्यन्तर देवो का इन्द्र हुआ हुँ । मै आपकी सेवा में हाजिर हूं कहिए ( फरमाइये ) जो आपकी आज्ञा हो वह करने को तैयार हैं । 

गुरुदेव श्री ने कहा कि हम लोगो पर कोई मेली विधा का प्रयोग कर रहा हैं। जिससे वह दिनभर साधुओ को भ्रमित कर घुमा,घुमा कर मार डालता है।अब तक दस साधुओ का कालधर्म हो गया और ग्याहव साधु घायल है। उपद्रव कौन करता है पता करके उसको शान्त कर दो । तब माणिभद्र इन्द्र ने उपद्रव करने वाले अपनी सेना के गोरा काला भेरु को अवधि ज्ञान से देखा काला गोरा भेरु को बुलाया और कहा कि संत पुरुषो को क्यों तंग करते हो।ऐसे कार्यो से भयंकर कर्म बन्धन में आत्मा पडती है  बुरी गति में जाना पड़ता है और दुःख भोगना पडता है इसलिए उपद्रव शान्त कर दो । 

भैरव कहने लगा कि आपकी आज्ञा मान्य है स्वामी।लेकिन अराधना जिसने की है हमने उसको वरदान दिया है और हम उनके मन्त्र से बंधित है इसलिए हम आपकी आज्ञा पालन नहीं कर सकेंगे।आप हमारे स्वामी है और जोर जबरदस्ती से आज्ञा का पालन करायेगे तो हम आपके साथ युद्ध में उतरेगे । 

श्री माणिभद्र इन्द्र और काला भेरु व  गोरा भेरु का युद्ध हुआ उसमें भैरवो की आठ भुजाएँ थी और माणिभद्र की छ भुजा होने से शस्त्र प्रहार नहीं कर सकते थे । इस लिए माणिभद्र इन्द्र ने बैंक्रिय लब्धि से सोलह भुजाएँ की और भैरव को युद्ध के अन्दर वश किया और आदेश दिया कि सन्तो का उपद्रव शान्त कर दो ।भैरव ने उपद्रव शान्त कर दिया और ग्याहरवाँ साधु स्वस्थ हो गया। 

माणिभद्र इन्द्र ने गुरुदेव श्री से विनंती की हे गुरुदेव! जो कोई श्री तपागच्छ की पाट परम्परा में आचार्य पाट पर बिराजित होंगे और इस स्थान पर आकर अठाई तप या अराधना कर मुझे याद करेंगे,उससे मेरा सिंहासन काँप उठेगा।मैं अवधि ज्ञान से जानकर सेवा में हाजिर हो जाऊंगा और धर्मलाभ पाऊँगा फिर मैं शासन की सेवा और रक्षा में सदैव स्मरण मात्र से सहायता करुँगा। जिससे जैन शासन की सेवा का लाभ मुझे भी प्राप्त होगा।

श्री माणिभद्र वीर के तीन स्थानक भारत भूमि पर कई काल से है । उज्जैनी में क्षिप्रा नदी के किनारे सिध्धवड के नाम से प्रसिद्ध हैं वहां मस्तक वहाँ पर पूजा जाता है मगरवाडा गाँव के बाहर दूसरा स्थानक है, वहां पर ढीचण (घुटने के नीचे) पूजा जाता है तीसरा आगलोड में है जहां पर धड़ पूजा जाता हैं । ऐसा कहकर श्री माणिभद्र इन्द्र अपने परिवार युक्त अपने स्थान पर चले गये ।

आगलोड नगर में धड पूजा जाता है , यह बहुत दिनों से प्रचलित थी । वि . स . १७३३ में आचार्य शान्ति सोमसूरजी ने एक सौ इक्कीस ( १२१ ) उपवास किये और पद्मासन से श्री माणिमद्र वीर की अराधना की माणिभद्र प्रकट हुए और कहा कि इस जगह मेरा स्थानक है , आप आँखे बन्द कर फिर खोलिए , आचार्य श्री आँखे बन्द की फिर खोली उतने में अपने को मगरवाडा स्थान में बैठे मालुम हुए । फिर आवाज हुई कि इन पिन्ड में से एक पिन्ड उठाओ और आँखे बन्द करके फिर खोलो । सूरीश्वरजी ने इसी प्रकार किया इतने में अपने को आगलोड नजदीक टेकरी पर जहां श्री माणिभद्रवीर का स्थानक है । वहां बैठे हुए देखे , वहाँ पर आवाज हुई कि इस पिन्ड कीे यहां पर स्थापन करो और कहां कि जो इस स्थानक पर मेरे पर श्रद्धा, आस्था सत्यता  रखेगा उसकी समस्त मनोकामनाएं एवं आशाऐं मैं पूर्ण करूंगा ।
 इससे सूरीजी को सन्तोष हुआ वि.सं . १७३३ में इस जगह की पुर्ण स्थापना हुई । कोई भी मनुष्य माणिभद्र इन्द्र की आस्था रखता है।उसका आपत्तिकाल में रक्षण होता है ।जल अग्नि,गृह,पीडा,दुष्ट राजा से,रोग,लडाई और राक्षसों से,शत्रुओ से मिर्गी रोग से,चोरो से,शिकारी पशुओ से,मदोत्मथ हाथी इत्यादि सर्वभयो से रक्षण होता है।अतिवृष्टि,अनावृष्टि,दुर्भिक्ष स्वचक्र , परचक्र इत्यादि सर्व भयो है रक्षण होता है । 

चौसठ इन्द्र माने जाते है ,वह कौन कौन से है उसका भी कुछ ज्ञान लेना आवश्यक है। बारह वैमानिक लोक के दस इन्द्र है । भुवनपति के अन्दर तीस इन्द्र है। सोलह व्यतर देवलोक के इन्द्र है।सोलह वाणवंतर के इन्द्र है।चंद्र व सूर्य एक एक इन्द्र होकर कुल चौसठ इन्द्र है।जो तीर्थकर परमात्माओ के कल्याणक निमित्ते भक्ति करने को आते हैं । महान् पन्य का उपार्जन करते हैं श्री माणिभद्र इन इन्द्रो में से व्यंतर लोक का इन्द्र है । 

व्यंतर देव आठ तरह के होते है। - किन्नर किंपुरुष , महोरग , गन्धर्व , यक्ष , राक्षस ,भूत ,पिशाच ये सभी स्वर्ग,मृत्यु पाताल सभी जगह स्पर्श करते हुए स्वतन्त्र रीति से अनेक गुफा नदी,तालाब,पर्वत , गिरिकन्दरा में निवास करते है । इसलिए व्यंतर कहे जाते हैं कितने ही क्षेत्र का रक्षण करने वाले होने से क्षेत्रपाल भी कहे जाते है ।

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